वो गांव के नल का मीठा पानी, जो अब मीठा नहीं रहा।
वो गाँव की हवाओं की ताज़गी, जो अब ताज़ी नहीं रही।
वो सुबह-सुबह कोयलों की कु- कु,
अब तो कोयल ही नहीं रही।
वो बरगद के पेड़ के नीचे खाट पर बैठ कर गप्पे लगाना, अब ना खाट रही ना बरगद।
सारे कामों के बाद भी वक़्त ही वक़्त होना,
वक़्त की मार से कभी ना रोना।
वो शरमाती साँझ को गाँव के बुजुर्गों का चौपाल,
बहुत याद आता है।
लगता है किसी बेईमान शहरी की नज़र लग गयी है मेरे गाँव को।
वो गाँव की हवाओं की ताज़गी, जो अब ताज़ी नहीं रही।
वो सुबह-सुबह कोयलों की कु- कु,
अब तो कोयल ही नहीं रही।
वो बरगद के पेड़ के नीचे खाट पर बैठ कर गप्पे लगाना, अब ना खाट रही ना बरगद।
सारे कामों के बाद भी वक़्त ही वक़्त होना,
वक़्त की मार से कभी ना रोना।
वो शरमाती साँझ को गाँव के बुजुर्गों का चौपाल,
बहुत याद आता है।
लगता है किसी बेईमान शहरी की नज़र लग गयी है मेरे गाँव को।
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